‘सोन चिड़िया’ से लेकर ‘पान सिंह तोमर’ और चंबल की क़सम’ जैसी फ़िल्मों के ज़रिए आपने ‘चंबल घाटी’ के डकैतों की कहानियां तो ज़रूर देखीं-सुनी होंगी. लेकिन डकैतों के इस सिनेमाई ग्लैमर से परे, चंबल घाटी के रोज़मर्रा में जीवन के झांककर यहां के ज़मीनी चुनावी मुद्दों की पड़ताल करने चम्बल के कुख्यात बीहड़ों में पाहुचिए और देखिये .राजधानी दिल्ली से क़रीब 350 किलोमीटर दूर, हम मध्यप्रदेश के मुरैना ज़िले के बीहड़ों से गुज़र रहे हैं. लगभग दोमंज़िला इमारतों जितनी उंचाई वाले रेतीले पठारों के बीचे से होते हुए टेढ़े मेढ़े रास्ते. बीच बीच में कंटीली जंगली वनस्पतियों के बड़े-बड़े झाड़ जो गुजराती गाड़ियों के बंद शीशों पर ‘स्क्रैच’ के निशान छोड़ जाते हैं
मुख्य शहर और बीहड़ों से एक घंटे की दूरी पर हमें चम्बल का साफ़ नीला पानी पहली बार नज़र आया. लेकिन मुरैना जिले से गुज़रने वाली यह नदी यहां तक एक लंबा रास्ता तय करके पहुंची है.मूलतः यमुना की मुख्य सहायक नदियों के तौर पर पहचानी जाने वाली चम्बल की शुरुआत विंध्याचल की पहाड़ियों में मऊ शहर के पास से होती है. फिर वहां से मध्यप्रदेश, राजस्थान, और उत्तर प्रदेश की सीमाओं से होती हुई यह वापस मध्य प्रदेश आती है और अंत में उत्तर प्रदेश के जालौन में यमुना में मिल जाती है. लेकिन क़रीब 960 किलोमीटर लम्बी अपनी इस यात्रा में चंबल अपने आस-पास रेतीले कंटीले बीहड़ों का लंबा साम्राज्य खड़ा करते हुए जाती है. हर साल क़रीब 800 हेक्टेयर की दर से बढ़ रहे बीहड़ आज चम्बल घाटी की सबसे बड़ी समस्या है
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