कभी कभी जब खुद पर ही झुँझलाहट आ जाती हैं
और गगन में कोई काली बदली सी छा जाती हैं
तब निज मन से उन बातों का चिंतन करते दिखता हूँ,
मन के सागर में शब्दों का मंथन करते दिखता हूँ,
मन के सागर में शब्दों का मंथन करते दिखता हूँ,
कहीं सहज तो कहीं कठिन हैं इस जीवन की राहें,
कहीं कहीं पर बैठा दिखता, काल खोलकर बाहें,
कहीं कहीं पर बैठा दिखता, काल खोलकर बाहें,
हुआ स्वयं से दूर कभी तो, कभी स्वयं में होता हूँ,
जाग जाग कर रातें कितनी खुली आँख से सोता हूँ,
जाग जाग कर रातें कितनी खुली आँख से सोता हूँ,
ये जीवन का काल चक्र यहाँ अपना कौन पराया हैं,
साथ उजाले तक रहता फिर दूर हुआ खुद साया है,
साथ उजाले तक रहता फिर दूर हुआ खुद साया है,
व्यर्थ हुए चिंता में जो क्षण कहाँ लौटकर आते हैं,
चिंतित मन जिनके खातिर फिर वही छोड़कर जाते हैं,
चिंतित मन जिनके खातिर फिर वही छोड़कर जाते हैं,
शांत किसी वन में जैसे पक्षी की कल -कल होती है,
हृदय उमड़ता ज्वार और लहरों सी हलचल होती हैं,
हृदय उमड़ता ज्वार और लहरों सी हलचल होती हैं,
मन की कृन्दन पीड़ाएँ उनको कैसे समझाऊँगा,
कलम उठाकर कागज़ पर आँसू कैसे लिख पाऊँगा।
कलम उठाकर कागज़ पर आँसू कैसे लिख पाऊँगा।
कुलदीप विद्यार्थी
धाकड़ खेड़ी
कोटा
धाकड़ खेड़ी
कोटा